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“अजी, सुनिये मार्केट जा रहे हैं तो मेरा कास्मेटिक का सामान लेते आइयेगा” मैंने इस आवाज को सुना ! रोज सुनता हूँ ! अपने हाथ में पकड़ी अम्मा की दवाइयों का पर्चा देखा जो जरुरी था।  मगर पैसे किसी एक की जरुरत को पूरा कर सकते थे।  दिल अम्मा की तरफ था मगर घर की कलह को देखते हुए दिमाग जीत गया।  पर्चा आहिस्ता से टीवी की टेबल पर रखा और दिमाग नए नए झूट गढ़ने लगा कि घर आकर क्या बोलना है।

मार्केट में अवस्थी जी नज़र आ गए, मेरे पुराने दोस्त जो दो साल बाद मिले थे। हाल – अहवाल के बाद मैंने पूछा अम्मा  कैसी है, मुझे याद आया कैसे हम दोनों की अम्मा अपना दुलार हम दोनों पर लुटाती थी।  कितना मज़ा किया है हम दोनों ने| तभी अवस्थी जी  बोले “अरे घर आओ बहुत याद करती है, अपनी भजन मंडली में मस्त है ऊपर अलग कमरा बनवा दिया  है सारा दिन पोते – पोतियों के साथ मस्त रहती है।  बहू के साथ घर का काम काज, शाम को भजन मंडली रात को पोते – पोतियों की संगत मेरे  दोनों बच्चे तो उन्हीं के साथ सोते है इतना तंग करते हैं दादी को। मगर उनको अकेलापन नहीं महसूस होता उनकी शरारतों में।

मेरे दिल में एक शर्मिंदगी जागी, घर का माहौल कौंधा!

कमरे में सारा दिन अकेली पड़ी माँ ,बीमारी में भी किसी को परवाह नहीं ! घर की शांति को देखते हुए मै भी चुप्पी साध लेता हूँ ! दोनों बच्चें भी दादी की तरफ से लापरवाह ! मै जो एक मात्र सहारा, बुढ़ापे की लाठी, जिसके पैदा होने पे मिठाईया बांटी गयी, हर सुख देने की कोशिश की गयी, जिसकी ज़रा सी तकलीफ पर यही माँ तड़प उठती थी,पूरी पूरी रात जाग कर गुजार देती थी ! बस कभी अपने अंदर इतनी हिम्मत ही नहीं जुटा पाया की घर की शांति को दांव पे लगा सकूँ,या अपनी चहेती बीवी को अपनी माँ की एहमियत बता सकूँ !

अचानक एक नया जोश, नया प्रण,वही बचपन वाला जब कोई मेरी माँ को बुरा कहता था तो सामने वाले का मुह तोड़ देने का और अपनी माँ की ढाल बन जाने का मन कऱता था,दिल के अंदर जागा

                                    कदम वापिस लौट पड़े इस प्रण के साथ

                                  नन्हा बच्चा बन थाम लू अपनी माँ का हाथ