एक फौजी का दर्द
उरी में हमले, पुंछ में हमले फिर भी तुम खामोश रहे,
ए. सी. वाली कारों में, ताक़त तुम मदहोश मिले।
जब बात वतन की नाक पर आयी “बीमारी ” से बेहोश मिले;
उरी में हमले पुंछ में हमले फिर भी तुम खामोश रहे।
ए. सी. वाली कारों में ताकत में तुम मदहोश मिले।
जब सरहद पर पूनम की चांदनी में एक फौजी गुज़र गया,
रब राखै कौन अनाथ हुआ और किसका बेटा बिछड़ गया.
फिर हुआ सबेरा आँखे रंग के टीवी के आगे बिफ़र गया,
रे ! तू क्या जाने किसका शौहर किस राखी से मिटर गया.
जब कलम हुआ था वो फौजी…..उसे तुम सबने ही मार था;
दुश्मन से नहीं हारा था पर वो तुम सब से ही हारा था.
तुम कहते जन से-“तुम अपनी धरती की पैरोकार करो। “…..
खा के जनता का पैसा पर तुम सपने अपने साकार करो.
तुम आग लगाते गाँवो में, माटी को तुम बदनाम करो…..
फौजी को बोलते तुम-“उतना जितना मैं बोलूं काम करो। … ”
देश जला के आग सेकते तुम दुश्मन के देशों संग;
आम आम आदमी करे शिकायत तो फैलाते जाती के रंग.
जी चाहे की जला के रख दू तेरी सल्तनत और हवेली को….
फिर कर मैं छलनी तेरे इस चाँद फकीरी को…
अपने साथी फौजी का शव अपनी काँधे से उठवाया था ;
काट गया था मेरा तंग कलेजा जब मैंने भाभी माँ को रुलाया था…
सच कहता हु साब जी, ये गला रूंध चीत्कारा था,
जब उसका विक्षिप्त शव ले जा उसके बच्चे को पुचकारा था.
बाप था उसका बिलख रहा, मेरा ज़मीर भी रूठ रहा था….
नज़र उठा के जब देखा- तो आसमान भी टूट रहा था….
फिर याद मुझे उनकी भी आयी जो “चिरनिद्रा” में लीन,
उन बेचारों के लिए भी हम कितने ग़मगीन हुए थे।
किसी की शादी तय ही हुई थी, किसी की चिट्ठी आनी थी….
किसी के माता-पिता ने कर दी, किसी की प्रेम कहानी थी।
आज किसी का अँधा बाप स्टेशन पर गाली खाता है….
आज कोई विधवा पर गंदी नज़र फिराए जाता है।
आज किसी के घर पर उसकी बेहेन कंवारी बैठी है….
आज किसी दरवाज़े पर एक माँ भिखारन बैठी है।
भेजा था अपना बेटा भारत वर्ष बचाने को,
पर देख दुर्दशा इन सब की जी करता है मर जाने को।
कोर्ट मार्शल कर दो मेरा या बोलो मुझको मर जाने को,
पर रात मिली थी बस इक मुझको उन सबका बदला लाने को।
उस रात मिला मौका मुझको उस लहू लाने को;
हमको भी सौभाग्य मिला दुश्मन को मार गिराने को।
भारत माँ के दामन को रंजित किया था वो कलंक मिटा के आया हूँ ;
दुश्मन को मैं उसके घर में सबक सिखा के आया हूँ;
वो एक काट के ले गए थे मैं चार काट के लाया हूँ ।-२
जो लड़े देश की ख़ातिर उसको झूठ बतलाते हो;
खाने में सुबहों-शाम तुम मेरे लहू की रोटी खाते हो।
तुम सबूत मांगते हो मुझसे मैं सच ही कहता जाऊंगा,
जब तक जागोगे सच से माटी में मैं मिल जाऊँगा।
-Alok Kulshrestha (B.tech 3rd yr branch – civil)